वर्तनी किसे कहते हैं – Vartani kise kahate hain?

वर्तनी किसे कहते हैं: हिंदी व्याकरण के बाकी विषयों के तुलना में, वर्तनी को समझना थोड़ा सा जटिल है. इसलिए नीचे मैंने सरल उपाय से समझाया है ताकि आपको वर्तनी अच्छे से याद रह सकें. UPSI, UPPSC, UPSSSC, MPPSC, MPSI और TET जैसे competitive परीक्षाओं में भी वर्तनी को लेकर प्रश्न आते हैं.      

वर्तनी किसे कहते हैं?

जब किसी शब्द में किसी भाव को बताने के लिए जितने वर्ण या अक्षर जिस क्रम में प्रयोग होते हैं, उन्हें उसी क्रम में लिखने को वर्तनी कहते हैं.

हिंदी में वर्तनी की समस्या कम जटिल नहीं है. एक ही शब्द को अनेक लेखक अनेक प्रकार से ही नहीं लिखते, वरन् एक लेखक भी एक ही शब्द को अनेक प्रकार से लिखते हुए देखे जाते हैं. इस अव्यवस्था से अहिन्दी-भाषाभाषियों को ही नहीं, वरन् हिंदी-भाषाभाषियों को भी काफी कठिनाई होती है. ‘जाय’, ‘जाये’, ‘जाए’ ; ‘गया’, ‘गयी’, ‘गई’ ; ‘आयगा’, ‘आयेगा’, ‘आएगा’, ‘आवेगा’, आदि में कौन रूप ग्राह्य होना चाहिए और कौन नहीं, इसमें हिंदी के पंडित को भी बुद्धि-विभ्रम हो सकता है. हिंदी जैसी किसी भी जीवंत एवं विशाल जनसमूह के द्वारा व्यवहृत भाषा को पुर्णतः नियम-निगडित करना संभव नहीं है. फिर भी, इतना प्रयास तो होना ही चाहिए कि व्यवस्था में कम-से-कम विकल्प की गुंजाइश हो.

हिंदी वर्तनी में विशेषतः इन बिन्दुओं पर उलझनें हैं-

(१) तत्सम शब्द, (२) सामासिक शब्द, (३) विदेशी शब्द, (४) अनुस्वार और चन्द्रबिंदु, (५) विभक्ति चिह्नों सुर संयुक्त क्रियाओं का योग, (६) ए-ये का प्रयोग.    

तत्सम शब्द                   

प्रायः सभी जानते हैं कि जिस प्रकार तत्सम शब्दों का प्रयोग संस्कृत में होता है, उसी प्रकार उनका प्रयोग हिंदी में भी होना चाहिए, किन्तु कुछ लोग कहते हैं कि हिंदी में लंगी मारने (हलंत देने) की आवश्यकता नहीं है. उनका कहना है कि हिंदी में अब दान, ध्यान तथा महान्, भगवान् के उच्चारण में कोई अंतर नहीं है; इसलिए इन्हें दो प्रकार से लिखना अनावश्यक है. ऐसे लोगों को जानना चाहिए कि संस्कृत में दिक्, संपद्, विपद्, आपद्, तडित्, महत्, जगत्, सत्, चित्, वृहत् जैसे हलंतवाले शब्दों की बहुत बड़ी संख्या है. यदि हम इन शब्दों से हलंत उड़ा देंगे, जगदीश, चिन्मय, दिगंत, दिग्गज जैसे अनेकानेक शब्दों में हुई संधि का समाधान नहीं कर पायेंगे. दूसरी बात यह है कि संस्कृत और हिंदी में एकरूपता रखने के लिए भी ऐसा करना उचित होगा.

कुछ लोग हलंत ही नहीं, वरन् द्वित्व भी समाप्त कर देना चाहते हैं; किन्तु ऐसा करने से सत्ता, महत्त्व, सत्त्व, तत्त्व आदि की व्युत्पत्ति समझ में नहीं आएगी. हाँ, जहाँ एक ही शब्द के दो रूप प्रचलित हैं – वर्त्तमान-वर्तमान, परिवर्त्तन-परिवर्तन, इनमें द्वित्त्ववाले रूप को छोड़ भी दिया जाए, तो कोई हर्ज नहीं. जहाँ विसर्ग हो वहाँ विसर्ग छोड़ने का भी कोई तुक नहीं है. यथा- दुःख, स्वान्तःसुखाय, पयःपान, रजःकण आदि.

सामासिक शब्द          

(क) अव्ययीभाव, द्विगु, बहुव्रीहि तथा कर्मधारय समास वाले शब्दों को एक साथ ही लिखना ठीक होगा. जैसे- यथाशक्ति, प्रतिदिन, चौराहा, दुमहला, दामोदर, पीताम्बर, परमात्मा, भलमानस, अभाव, अनदेखा आदि.

(ख) द्वंदसमास में पदों के बीच योजक चिह्न (हाइफन) देना ही ठीक होगा. जैसे- राम-कृष्ण, लोटा-डोरी आदि.

(ग) तत्पुरुष में –

  • दो छोटे शब्दों को एक साथ लिखना ठीक होगा. जैसे-भूपति. किंतु जहाँ भ्रम की गुंजाईश हो, वहाँ योजक चिह्न दिया जा सकता है. जैसे- भू-तत्त्व.यदि इसे मिला देते हैं तो ‘भूतत्त्व’ का ‘भूत होने का भाव’ अर्थ भी निकल सकता है.   
  • दो बड़े शब्दों के बिच में योजक-चिह्न देना ठीक होगा. जैसे- साहित्य-संगम, विज्ञान-समारोह आदि. 
  • दो से अधिक बड़े शब्दों को योजक-चिह्न न देकर, यूं ही लिखना ठीक होगा. जैसे- बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा आदि.   

विदेशी शब्द                                 

  • अँगरेजी के शब्दों में उच्चारण की शुद्धता की दृष्टी से अर्धचंद्र का प्रयोग करना चाहिए, भले ही कुछ विद्वानों को यह ‘उलटाटोप’ न जँचे. डॉक्टर, कॉलेज, बॉल आदि अनेक अँगरेजी-शब्दों के शुद्ध उच्चारण के लिए इस नये संकेत का प्रयोग बिलकुल वांछनीय है.
  • अरबी-फारसी शब्दों में क़, ख़, ग़, ज़, फ़ के नीचे नुक्ता देना ठीक नहीं होगा, क्योंकि हिंदी में अरबी-फारसी के हजारों शब्द आ गये हैं और नुक्ते के शुद्ध प्रयोग के लिए अरबी-फारसी का अच्छा ज्ञाता होना चाहिए. जहाँ नुक्ता के कारण अर्थभेद होता है, वहाँ भी भरसक उससे बचना चाहिए, क्योंकि प्रयोग से तो अर्थ स्पष्ट हे ही जाता है.
  • अरबी-फारसी में संयुक्ताक्षरों का प्रचलन नहीं है, इसलिए प्रायः उन्हें असंयुक्त ही लिखना चाहिए. उलटा, बिलकुल, बरफ, बरबाद, गरमी, सरदी, नरम, शरद आदि ठीक हैं. किंतु जहाँ संयुक्त किये बिना काम नहीं चलता, वहाँ संयुक्त प्रयोग को भी छूट मिलनी चाहिए. मस्त, बन्द, अन्दाज, अन्दर आदि शब्दों को मसत, बनद, अनदाज, अनदर लिखना उच्चारण की दृष्टि से बहुत खटकनेवाला है.                 

अनुस्वार और चंद्रबिंदु

कुछ विद्वानों का विचार है कि लाघव के दृष्टि से हलंत वर्णों (ङ, ञ, ण, न, म) के बदले अनुस्वार से ही काम चला लेना चाहिए. किंतु उच्चारणानुकूल लेखन तथा मुद्रण में अनुस्वार के छिटक जाने के कारण सर्वत्र अनुस्वार का प्रयोग उचित नहीं मालूम पड़ता है. हिंदी में ङ  तथा ञ का प्रयोग बहुत कम होता है, अतः अङ्ग, अङ्क तथा चञ्चल के बदले तो अंग, अंक तथा चंचल के प्रयोग को मान्यता देना ठीक मालूम पड़ता है, किंतु सर्वत्र अनुस्वार देना ठीक नहीं जँचता है. कण्टक और  छन्द के बदले कंटक और छंद का ठीक उच्चारण हिंदी भाषाभाषी तो अपने वातावरण से सीख ले सकते हैं, किंतु अहिंदी-भाषा-भाषी के लिए संभव नहीं है. अतः टवर्ग, तवर्ग तथा पवर्ग के संयुक्त पंचमाक्षर का ही प्रयोग होना चाहिए. अन्तःस्थ (य, र, ल, व) तथा उष्म (श, ष, स, ह) के साथ पंचमाक्षर का प्रयोग न करके अनुस्वार का प्रयोग होना चाहिए. यंत्र, रंक, लंका, वंक, शंख, षंड, संगीत, हंस के साथ अनुस्वार का प्रयोग ही श्रेयस्कर है.

अनुस्वार और चन्द्रबिंदु में जिनका जो क्षेत्र हो, वहाँ उनका प्रयोग होना चाहिए क्योंकि दोनों के उच्चारण में पर्याप्त पार्थक्य है. ऐसा करने से हंसी और हँसी, अंगना और अँगना, चंदा और चाँदनी, अंधेरा और अँधेरा, मंजन और माँजना, फंदा और फाँस, अंत और अँतड़ी, खंजर और खँजड़ी, गंदा और गँदला के उच्चारण में कोई फर्क ही नहीं होता है.         

विभक्ति-चिह्नों और संयुक्त क्रियाओं का योग

  • संज्ञा के साथ विभक्ति-चिह्नों को अलग ही लिखना चाहिए. यथा- राम ने, सीता को, मोहन से, राधा के लिए, आलमारी में, टेबुल पर आदि. किंतु सर्वनाम के साथ विभक्ति-चिह्नों को अलग नहीं लिखना चाहिए, क्योंकि ऐसा प्रचलन तो है ही, साथ-ही-साथ सर्वनाम के रूप और विभक्ति प्रत्यय में संयुक्त होने पर परिवर्तन भी होता है; जैसे- मैं+का=मारा. अतः ‘मैं ने’, ‘तुम को’, ‘उन से’ आदि का अलग प्रयोग न कर ‘मैंने’, ‘तुमको’, ‘उनसे’ का प्रयोग ही वांछनीय है.
  • यदि सर्वनाम के साथ दो विभक्ति-चिह्न आएँ, तो पहले को साथ तथा दूसरे को अलग ही लिखना चाहिए. यथा- उनके लिए, उनमें से आदि.  
  • ‘साथ’, ‘तक’ आदि को अलग ही लिखना चाहिए. जैसे – मेरे साथ, वहाँ तक आदि. 
  • पूर्वकालिक कृदंत ‘कर’ तथा ‘वाला’, ‘हारा’ आदि को साथ ही लिखना चाहिए. यथा- खाकर, पीकर, सोकर, लकड़ीवाला, चूड़ीहारा आदि.    
  • सा, से, सी, जैसा, जैसी आदि का प्रयोग योजक चिह्न देकर करना चाहिए. जैसे- कमल-सा, नारंगी-जैसी आदि.     
  • आदरसूचक ‘जी’ का प्रयोग साथ होना चाहिए. यथा- गुरूजी आ रहे हैं.
  • संयुक्त क्रियाओं के सभी अंगों को अलग ही लिखना चाहिए. जैसे- पढ़ लिया करता है, तैयार कर लिया जा सकता है.

ए-ये का प्रयोग

हिंदी में ‘ए-ये’ के प्रयोग की समस्या संभाव्य भविष्यत्, सामान्य भविष्यत्, सामान्य भूत, आदरसूचक विधि, सामान्य भूत स्त्रीलिंग तथा सामान्य भूत बहुवचन को लेकर है.

  • संभाव्य भविष्यत् आए, आये, खाए, खाये तथा सामान्य भविष्यत् – आइए-आइये, खाइए-खाइये आदि दोनों प्रकार के प्रयोग देखे जाते हैं. यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि संस्कृत के विधिलिंग से ही हिन्दी का संभाव्य भविष्यत् काल निकला है. ‘पठेत्’ से ‘पढे’, खेलेत् से ‘खेले’, ‘भजेत्’ से भजे, ‘सेवेत्’ से ‘सेवे’ आदि. अतः पढ़े, खेले, मेजे, सेवे, आदि रूपों को देखने से पता चलता है कि धातु में ‘ए’ जोड़ देने पर संभाव्य भविष्यत् रूप बन जाता है.

संभाव्य भविष्यत् = धातु+ए (पढ़+ए=पढ़े)

इसीलिए, संभाव्य भविष्यत् रूप बनाने के लिए ‘ए’ जोड़ना उचित है ‘ये’ जोड़ना नहीं. इस दृष्टि से आना, जाना, सोना, वोना, रोना, धोना आदि के संभाव्य भविष्यत् रूप बनाने के लिए पूर्वनिर्दिष्ट नियम का ही सहारा लेना उचित होगा.

यानी धातु+ए :

आ (धातु) + ए = आए

जा (धातु) + ए = जाए

सो (धातु) + ए = सोए

बो (धातु) + ए = बोए

रो (धातु) + ए = रोए     

धो (धातु) + ए = धोए

  • हिंदी में सामान्य भविष्यत् धातु में ‘एगा’ जोड़कर बनता है, जबकि संभाव्य भविष्यत् केवल ‘ए’ जोड़कर.

संभाव्य भविष्यत्               सामान्य भविष्यत्

लिख+ए=लिखे                  लिख+एगा=लिखेगा

पढ़+ए=पढ़े                      पढ़+एगा=पढ़ेगा 

दौड़+ए=दौड़े                    दौड़+एगा=दौड़ेगा 

आ+ए=आए                      आ+एगा=आएगा 

जा+ए=जाए                      जा+एगा=जाएगा 

  • आदरसूचक विधि का प्रत्यय है ‘इए’. जैसे – आप आइए, जाइए, बैठिए. आदरसूचक सामान्य भविष्यत् का प्रत्यय है ‘इएगा’. जैसे- आप आइएगा, जाइएगा, बैठिएगा.    
  • समान्यभूत (पूर्ण कृदंत) बनाने के लिए अकारांत धातुओं में ‘आ’ जोड़ा जाता है. जैसे- ‘पढ़’ से ‘पढ़ा’,’लिख’ से ‘लिखा’ आदि; किंतु अ-भिन्न स्वरांत धातुओं में ‘आ’ के स्थान पर ‘या’ का आगम हो जाया करता है, जैसे- आया, गया, खाया. अतः पुंलिंग बहुवचन और स्त्रीलिंग बनाने के लिए इसमें केवल एकार और ईकार करने की जरुरत होती है.   

पुं० ब० – लिखे, दौड़े

स्त्री० – लिखी, दौड़ी

भिन्न-स्वरांत धातुओं में भी ‘आये-गये’, ‘आयी-गयी’, बना लेने में काफी सुविधा है. इसी नियम से ‘हो’ धातु से ‘हुआ’, ‘हुए’, ‘हुई’ बनाना भी नियमानुकूल है. बो, सो आदि धातुओं की भाँति इसमें ‘य’ का आगम नहीं होता है, इसीलिए उलझन में पड़ने की संभावना नहीं है. इसी प्रकार विशेषण में भी ‘नया’ से ‘नये’, ‘नयी’ रूप तो बनाये जा सकते हैं किंतु जहाँ ‘होना’ क्रिया रूप जुड़ा हुआ है, वहाँ ‘ए’, ‘ई’ जोड़कर ही विशेषण बनाना उचित होगा. यथा- आते हुए लड़के, आती हुई लड़की आदि.

अव्यय और सम्प्रदान विभक्ति के पार्थक्य के बोध के लिए ‘ए’ रूप चलाना ही उचित होगा. ‘इसीलिए’, ‘के लिए’ में ‘ए’ ही होना चाहिए. ‘ले’ धातु हो तो क्रिया में ‘लिया’, ‘लिये’, ‘ली’ चलेगा. ‘मेरे लिए’ और ‘इसलिए’ में ‘लिए’ अव्यय-रूप है, अतः इसमें परिवर्तन डालने का कोई तुक नहीं.

आपके लिए :-

तो ये था वर्तनी किसे कहते हैं. इस लेख में मैंने वर्तनी के बारे में विस्तार से बताया है, जिससे आपको वर्तनी को कहीं और पढ़ने की जरूरत नहीं है. उम्मीद है आप ये टॉपिक आप अच्छे से समझ गये होंगे. अगर आपके मन में वर्तनी को लेकर कुछ सवाल है तो आप हमें पूछ सकते हैं.

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